Almora

Wednesday, November 10, 2010

काफल मेरे गांव के खेतों और वनों में रसीले, लाल काले काफल पक गए होंगे। गांव के बच्चे और बहू-बेटियां गेहूं के ‘नौल’ से बनाई हुई छापरियां (छोटी टोकरियां) सिर पर रख कर काफल तोड़ने के लिए चल पड़ी होंगी। काफल पकने की खबर देने के लिए ‘काफल-पाक्को’ चिड़िया पहुंच चुकी होगी। और, रात्ते ब्यान (एकदम सुबह) से ही रट लगा रही होगी…काफल पाक्को! काफल पाक्को! काफल पाक्को! काफल पकने का मौसम भी हमारे लिए जैसे त्यों-त्यार (त्यौहार) का मौसम होता था। घर के बड़े खल्-आंगन में गाते-गाते गेहूं की दांय मांड़ते थेः फेर हो बल्दा (बैल) , फेर हो… म्यरो बल्दा ह्वै जाले S बल्दा फेर हो! हम काफल के पेड़ों पर चढ़ रहे होते थे। डाली-डाली पर पहुंच कर रसीले काफल तोड़ते। खाते भी और जमा भी करते। खाते-खाते पेट भर जाता। मगर हमें मालूम था कि भूख फिर कैसे लगेगी। अंजुलि में भर कर वहीं किसी सोते या नौले का ठंडा पानी पी लेते और फिर भूख लग जाती। हमें पता होता था, किस पेड़ पर कैसे काफल फलते हैं- बड़े-बड़े लाल डमफल जैसे या छोटे-छोटे काले और मीठे। इसलिए कोई काफल हमारे लिए ग्यों (गेहूं) काफल होता था, कोई मंडुवा (कोदों) काफल और कोई काकुनी (मक्का) काफल। हम जेबों में भर-भर कर काफल तोड़ते थे और दीदी-बहनें ओढ़नी के फेट में। जब छापरी भर जाती तो उसके ऊपर काफल के पत्तों की परत बिछा देते। टोकरी को ओढ़नी या चौड़े कपड़े के बीच में रख कर, लपेट कर ऊपर गांठ लगा देते। बीच में से हाथ भीतर जाने की जगह छूटी रहती। कतार में घर को लौटते। राह में कोई काफल मांगता तो सिर में रखी छापरी के भीतर हाथ डाल कर मुट्ठी-दो मुट्ठी काफल निकाल कर दे देते। कड़ी धूप में दांय मांड़ते घर के सयानों का गला सूख रहा होता। दो-चार मुट्ठी काफलों से उनकी तीस (प्यास) मिट जाती। वे फिर बैलों को दांय में घुमाने लगते…फेर हो बल्दा, फेर हो S… काफल हमारी संस्कृति, हमारे रीति-रिवाज का अटूट हिस्सा था। घर के आसपास या खेतों में खड़े काफल के पेड़ों की रक्षा की जाती थी। काफल के बोटों को बढ़ने दिया जाता था। काफल के पेड़ों की छांव में पानी के सोते वाली जगह काफल-पानी कहलाती थी। काफल के पेड़ों की बहुतायत वाला इलाका कफलानि कहलाता था। काफल के पेड़ के पास की जगह को लोग ‘काफल-थैं’ कहते थे। तब बाज़ार गांव तक नहीं पहुंचा था, न पेड़-पौधों की छाल के दलाल वहां पहुंचे थे। ग्वाले काफलों की छांव में आराम कर लेते थे। चरते-चरते थक जाने पर गोरु-भैंसें भी सुस्ताने के लिए छांव में आकर बैठ जाती थीं। काफल के पेड़ों पर चिड़ियों का बसेरा होता था। फिर न जाने किसकी नजर लगी काफल के पेड़ों को। उनके पास तक बाजार पहुंच गया। छाल उतारने वाले निर्मम दलाल और धन लोलुप लोग पहुंच गए। कई लोगों की आंखों पर पैसे का परदा पड़ गया। दवा के नाम पर काफल का दर्द शुरु हुआ। मंडी में मिट्टी-पानी के भाव बेचने के लिए काफल के पेड़ों की छाल उतारी जाने लगी। वन में ही नहीं खेतों में खड़े पेड़ों पर भी दलालों और धन-लोलुप लोगों की कुल्हाड़ी चली। गांवों से काफल की छांव गुम होने लगी। जिन गांवों में लोगों ने समय पर गांव से गुम होते काफलों का दर्द महसूस कर लिया, वहां काफल उजड़ने से बच गए। जहां लोग इन पेड़ों का दर्द नहीं समझ पाए, वहां काफल के पेड़ गायब हो गए। साथ ही, वहां गायब हो गई पुश्तों से चली आ रही काफल संस्कृति। बस, गीतों में रह गए काफल- ‘बेडू पाको बारुमासा, नरैण काफल पाको चैत, मेरि छैला’… गनीमत है कि कई गांवों में अब भी काफल शेष हैं। उन्हीं की बदौलत यह लाल-काला, रसीला फल आसपास के शहरों में पर्यटकों के बीच पहाड़ की पहचान बनता है। लोग पूछते हैं- ‘‘ क्या फल है ये?’’ काफल बेचने वाला कहता है- ‘‘ काफल!’’ किस्सा है कि काफल का नाम इसी तरह पड़ा। किसी अंग्रेज ने पूछा, ‘ क्या फल है?’ जवाब मिला- ‘काफल’। वह बोला, ‘ओह, काफल!’ और, इस तरह इसका नाम पड़ गया- काफल।

काफल
मेरे गांव के खेतों और वनों में रसीले, लाल काले काफल पक गए होंगे। गांव के बच्चे और बहू-बेटियां गेहूं के ‘नौल’ से बनाई हुई छापरियां (छोटी टोकरियां) सिर पर रख कर काफल तोड़ने के लिए चल पड़ी होंगी। काफल पकने की खबर देने के लिए ‘काफल-पाक्को’ चिड़िया पहुंच चुकी होगी। और, रात्ते ब्यान (एकदम सुबह) से ही रट लगा रही होगी…काफल पाक्को! काफल पाक्को! काफल पाक्को!
काफल पकने का मौसम भी हमारे लिए जैसे त्यों-त्यार (त्यौहार) का मौसम होता था। घर के बड़े खल्-आंगन में गाते-गाते गेहूं की दांय मांड़ते थेः
फेर हो बल्दा (बैल) , फेर हो…
म्यरो बल्दा ह्वै जाले S
बल्दा फेर हो!
हम काफल के पेड़ों पर चढ़ रहे होते थे। डाली-डाली पर पहुंच कर रसीले काफल तोड़ते। खाते भी और जमा भी करते। खाते-खाते पेट भर जाता। मगर हमें मालूम था कि भूख फिर कैसे लगेगी। अंजुलि में भर कर वहीं किसी सोते या नौले का ठंडा पानी पी लेते और फिर भूख लग जाती।
हमें पता होता था, किस पेड़ पर कैसे काफल फलते हैं- बड़े-बड़े लाल डमफल जैसे या छोटे-छोटे काले और मीठे। इसलिए कोई काफल हमारे लिए ग्यों (गेहूं) काफल होता था, कोई मंडुवा (कोदों) काफल और कोई काकुनी (मक्का) काफल। हम जेबों में भर-भर कर काफल तोड़ते थे और दीदी-बहनें ओढ़नी के फेट में।
जब छापरी भर जाती तो उसके ऊपर काफल के पत्तों की परत बिछा देते। टोकरी को ओढ़नी या चौड़े कपड़े के बीच में रख कर, लपेट कर ऊपर गांठ लगा देते। बीच में से हाथ भीतर जाने की जगह छूटी रहती। कतार में घर को लौटते। राह में कोई काफल मांगता तो सिर में रखी छापरी के भीतर हाथ डाल कर मुट्ठी-दो मुट्ठी काफल निकाल कर दे देते। कड़ी धूप में दांय मांड़ते घर के सयानों का गला सूख रहा होता। दो-चार मुट्ठी काफलों से उनकी तीस (प्यास) मिट जाती। वे फिर बैलों को दांय में घुमाने लगते…फेर हो बल्दा, फेर हो S…
काफल हमारी  संस्कृति, हमारे रीति-रिवाज का अटूट हिस्सा था। घर के आसपास या खेतों में खड़े काफल के पेड़ों की रक्षा की जाती थी। काफल के बोटों को बढ़ने दिया जाता था। काफल के पेड़ों की छांव में पानी के सोते वाली जगह काफल-पानी कहलाती थी। काफल के पेड़ों की बहुतायत वाला इलाका कफलानि कहलाता था। काफल के पेड़ के पास की जगह को लोग ‘काफल-थैं’ कहते थे। तब बाज़ार गांव तक नहीं पहुंचा था, न पेड़-पौधों की छाल के दलाल वहां पहुंचे थे। ग्वाले काफलों की छांव में आराम कर लेते थे। चरते-चरते थक जाने पर गोरु-भैंसें भी सुस्ताने के लिए छांव में आकर बैठ जाती थीं। काफल के पेड़ों पर चिड़ियों का बसेरा होता था।
फिर न जाने किसकी नजर लगी काफल के पेड़ों को। उनके पास तक बाजार पहुंच गया। छाल उतारने वाले निर्मम दलाल और धन लोलुप लोग पहुंच गए। कई लोगों की आंखों पर पैसे का परदा पड़ गया। दवा के नाम पर काफल का दर्द शुरु हुआ। मंडी में मिट्टी-पानी के भाव बेचने के लिए काफल के पेड़ों की छाल उतारी जाने लगी। वन में ही नहीं खेतों में खड़े पेड़ों पर भी दलालों और धन-लोलुप लोगों की कुल्हाड़ी चली। गांवों से काफल की छांव गुम होने लगी। जिन गांवों में लोगों ने समय पर गांव से गुम होते काफलों का दर्द महसूस कर लिया, वहां काफल उजड़ने से बच गए। जहां लोग इन पेड़ों का दर्द नहीं समझ पाए, वहां काफल के पेड़ गायब हो गए। साथ ही, वहां गायब हो गई पुश्तों से चली आ रही काफल संस्कृति। बस, गीतों में रह गए काफल- ‘बेडू पाको बारुमासा, नरैण काफल पाको चैत, मेरि छैला’…
गनीमत है कि कई गांवों में अब भी काफल शेष हैं। उन्हीं की बदौलत यह लाल-काला, रसीला फल आसपास के शहरों में पर्यटकों के बीच पहाड़ की पहचान बनता है। लोग पूछते हैं- ‘‘ क्या फल है ये?’’  काफल बेचने वाला कहता है- ‘‘ काफल!’’
किस्सा है कि काफल का नाम इसी तरह पड़ा। किसी अंग्रेज ने पूछा, ‘ क्या फल है?’  जवाब मिला- ‘काफल’। वह बोला, ‘ओह, काफल!’ और, इस तरह इसका नाम पड़ गया- काफल।

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